संविधान की धारा–२१ को संशोधित करते हुये ८६ वाँ संविधान संसोधन अधिनियम २००२ प्रारंभिक शिक्षा को मूल अधिकार स्वीकार करते हुये ६ से १४ वर्ष के आयु वर्ग के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने हेतु प्राधिकृत करता है। इस दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश के लिए शिक्षा परियोजना परिषद हेतु शिक्षा क्षेत्र अति विस्तृत हो गया है।
६ से १४ वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों का विकास तो विद्यालय परिसर की परिसीमा में ही होना चाहिये और उन्हें सड़कों, गलियों और फुटपाथों पर नहीं भटकना चाहिये। विद्यालय जाने वाले बच्चों को रेलवे स्टेशन पर कुली ⁄ पल्लेदार, घरों में घरेलू नौकरों, होटल और दुकानों पर नौकरों की तरह काम–काज नहीं करवाना चाहिये। बालिकाओं को बच्चों की देखभाल करने के लिये, घर के काम काज को निपटाने के लिये, मां–बाप को हाथ बटाते हुये, खेत–खलिहानों में सहायता देते हुये घर पर नहीं रहना चाहिये। वस्तुतः विद्यालय जाने की उम्र वाले बच्चों को प्रसन्न मन रहते हुये पढ़ने और खेलने के लिये विद्यालय में ही रहना चाहिये।
अशिक्षित, गरीब और वंचित वर्ग के बच्चों एवं शारीरिक व मानसिक रूप से असमर्थ एवं विकलांग बच्चों को विशेष देखभाल और सुरक्षा के साथ विद्यालय भेजा ही जाना चाहिये। बहुत सारे अध्ययनों एवं शोधात्मक गतिविधियों से यह प्रमाणित हो गया है कि शोधात्मक गतिविधियों से यह प्रमाणित हो गया है कि व्यक्ति और समाज की गरीबी को बच्चों को कमाई के लिये काम पर भेजकर नहीं अपितु पढ़ने और खेलने के लिये विद्यालय भेजकर ही धीरे–धीरे समाप्त किया जा सकता है। यदि बच्चे विद्यालय जायेंगे तो निश्चय ही उसके परिवार के वयस्क सदस्य आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन सभी स्थानों पर जायेंगे जहाँ उनके बच्चे मेहनत और मजदूरी करते थे। इससे वयस्क लोग रोजगार भी पा जायेंगे और इन बच्चों से कहीं अधिक कमाई करने में सक्षम होंगे। बहुधा यह भी देखा गया है कि जिस परिवार के बच्चे काम पर जाते हैं, उस परिवार के वयस्क सदस्य आलसी बन जाते हैं और बच्चों की कमाई उस परिवार में बेतरतीब तरीके से अनाप– शनाप कामों में कामों में खर्च की जाती है। मालिक भी वयस्कों के स्थान पर बच्चों को नौकरी देना अधिक पसंद करते हैं कारण कि उन्हें वयस्कों की तुलना में बच्चों को कम से कम मजदूरी देना पड़ता है। इस तरह से मालिक बच्चों की मेहनत का नजायज लाभ उठाकर इन बच्चों का तरह–तरह से शोषण करते हैं।
यहीं से प्रारम्भ होता है मां–बाप, गुरूओं शैक्षिक संस्थानों के प्रशासकों एवं समाज के उत्तरदायित्च का, कि विद्यालय जाने की उम्र वाले बच्चों को मेहनत–मजदूरी के लिये कार्य स्थल पर नहीं जाना चाहिये और न ही इन बच्चों को किसी भी अन्य कारण विद्यालय के अतिरिक्त किसी अन्य स्थल पर जाना चाहिये प्रत्येक स्थिति में इन बच्चों को साफ सुथरे वातावरण में केवल विद्यालय ही जाना चाहिये। कोई भी बालक अथवा बालिका स्वयं से ऐसा परिवेश पाने की सोच भी नहीं सकता ⁄ सकती है। यह उत्तरदायित्व तो मां–बाप, गुरू, समुदाय और शैक्षिक संस्थाओं के प्रशासकों को बनता है कि विद्यालय जाने की अवधि काल में किसी भी कारण से बच्चे को विद्यालय परिसर का परित्याग नहीं करना चाहिये। एक बार विद्यालय में प्रवेश प्राप्त ⁄ पंजीकृत बच्चे को विद्यालय समयावधि को बिना पूर्ण किये विद्यालय के बाहर नहीं जाना चाहिये। इस प्रकार से गुणवत्ता प्रधान शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बच्चे का अधिकार है। इसको सुनिश्चत करने हेतु प्रत्येक उद्यमी ⁄ सामाजिक अपेक्षाओं की पूर्ति करने वाले अग्रदूत को निम्नांकित विवरण के अनुसार लक्ष्य की उपलब्धि में सहभागिता करनी चाहिये।
अध्यापकों को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा एवं मनोमुग्धकारी, ऐश्वर्यवान वातावरण के माध्यम से अधिकाधिक बच्चों का पंजीकरण एवं ठहराव का संरक्षण करना चाहिये।
समुदाय ⁄ मां–बाप को प्रत्येक स्तर पर बच्चों की शैक्षणिक प्रक्रिया में योगदान करना चाहिये। शैक्षणिक संस्थाओं के प्रशासकों को अपनी रणनीति में वातावरण का विकास एवं इसके प्रारूप को ऐसे विशिष्ट शैली में क्रियान्वित करना चाहिये कि अध्यापकों की उपलब्धता, अध्यापकों की योग्यता, उनका कौशल एवं उनकी अभिप्रेरक क्षमता सुनिश्चित हो सके ताकि वे प्रत्येक बालक ⁄ बालिका को गुणवत्ता प्रधान शिक्षा प्रदान कर उसका निर्माण समाज और राष्ट्र के लक्ष्य प्राप्ति में कर सकें। |